पौराणिक कथाओ के अनुसार, जब असुरो का आतंक बढ़ गया और सृष्टि का संतुलन बिगड़ने लगा। तब माता के तीनो रूप माँ सरस्वती, माँ लक्ष्मी और माँ काली ने एक होकर, एक अलौकिक शक्ति को जन्म दिया, जिसका काम पृथ्वी पर सत्य और धर्म को बढ़ाना था।
देवियों ने उस शक्ति से कहा, “तुम धरती पर रह कर सत्य एवं धर्म की स्थापना करो और विष्णु जी में लीन होकर एक हो जाओ।”
दक्षिण भारत के रामेश्वरम में राजा रत्नाकर सागर एक बहुत बड़े विष्णु भक्त थे, तथा लंबे समय से निसंतान थे। माता ने उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। उस कन्या के जन्म लेने के एक दिन पहले, देवियों ने राजा रत्नाकर सागर से वचन लिया की “यह दिव्य कन्या जो भी करना चाहेगी, आप उसे करने दोगे, कभी भी उसके रास्ते में नहीं आओगे”।
यह कन्या बचपन से ही बहुत सुंदर और ज्ञान की धनी थी| इस कन्या का नाम राजा रत्नाकर सागर ने वैष्णवी रखा| इनका दूसरा नाम त्रिकुटा भी था|
बहुत कम उम्र में वैष्णवी ने सारे पारिवारिक सुखों को त्याग कर, तपस्या के लिए गहन वन में चली गयी। इस दौरान भगवान राम अपने 14 वर्षों के बनवास पर थे। वैष्णवी की भेंट भगवान राम से हुयी। वैष्णवी ने भगवान राम को तुरंत पहचान लिया और उनसे शादी करने का निवेदन किया।
भगवान राम ने बोला, इस जन्म में सीता पहले से मेरी पत्नी है, इसीलिए मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता। लेकिन मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ, और मैं तुम्हें एक अवसर देना चाहता हूँ , ” मैं तुम्हारे पास फिर से आऊंगा, अगर तुम मुझे पहचान लोगी तो मैं तुमसे विवाह करूंगा”।
रावण को हराने के बाद भगवान राम एक वृद्ध ब्राह्मण का वेश करके माता वैष्णवी के पास आए। दुर्भाग्य से वैष्णवी भगवान राम को पहचान नहीं पायी। जब देवी को इसका अहसास हुआ तो वह काफी दुखी हो गई। तब भगवान राम ने देवी को समझाते हुए कहा, कलयुग में मैं जब कल्कि का अवतार लूंगा, तब तुम मेरी पत्नी बनोगी। तब से माँ वैष्णो त्रिकूट पर्वत पर तपस्या में लीन होकर भगवान राम का इंतजार कर रही हैं। भगवान राम ने वैष्णवी को त्रिकुटा पहाड़ी पर आश्रम बनाने को कहा, ताकि गरीब और दुखी लोगों के दुख दूर हो सके। वैष्णवी ने वैसा ही किया, और भगवान राम के कथन अनुसार वैष्णवी की ख्याति सब जगह फ़ैल गयी।
महायोगी गुरु गोरखनाथ जी ने माता वैष्णवी और भगवान राम के बीच हुए बातों को अपने ज्ञान के नयन से देख लिया था| उन्होंने सोचा मां वैष्णवी की परीक्षा ली जाए, वह देखना चाहते थे, कि वास्तव में मां वैष्णो देवी में अलौकिक शक्तियां है या नहीं| इसके लिए उन्होंने अपने शिष्य भैरवनाथ को भेजा| भैरवनाथ चुपके से मां वैष्णवी के आश्रम पहुंचे, और उनकी सुंदरता को देखकर उन पर मोहित हो गए, और उनसे विवाह करने का विचार किया|
उसी समय गांव में माता के कहने पर, भक्त श्रीधर ने भंडारे का आयोजन किया| माता ने उससे कहा, पूरे गांव को बुलाओ। श्रीधर ने माता की बात मानते हुए पूरे गांव को बुलाया, और साथ ही गोरखनाथ जी, और उनके शिष्य भैरवनाथ सहित सारे शिष्यों को बुलाया| श्रीधर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। जिसके कारण वह आयोजन की चिंता करने लगे। फिर उन्होंने सब किस्मत पर छोड़ दिया। सुबह होने पर लोग वहां प्रसाद ग्रहण करने के लिए आने लगे। उन्होंने देखा कि एक छोटी कन्या उनकी कुटिया में पधारी और उनके साथ भंडारा तैयार किया।
भंडारे में वह कन्या अपने हाथों से सारे भक्तों को खाना खिला रही थी| इस प्रसाद को ग्रहण करने के बाद लोगों को संतुष्टि मिली, लेकिन वहां मौजूद भैरवनाथ को नहीं। वह श्रीधर से मांस और मदिरा मांगने लगा। कन्या रूपी माता ने बोला, “भैरवनाथ, आप ब्राह्मण के घर पर आए हो, यह आपको शोभा नहीं देता, जो भी बना है, उसे प्रेम से स्वीकारें”। इस पर भैरवनाथ क्रोधित हो गया, और मां वैष्णवी को पकड़ने का प्रयास किया, परंतु वह विफल रहा। माता पवन रूप लेकर पहाड़ों के ऊपर चली गई।
वैष्णवी ने अपनी तपस्या को निर्विघ्न जारी रखने के लिए पहाड़ों में जाने का फैसला किया। हालांकि भैरों नाथ ने उसका पीछा किया। माता वैष्णवी के साथ उस समय हनुमान जी भी थे। हनुमान जी को प्यास लगी, तो माता ने तीर चला कर वहां एक जलधारा निकाली, जिसे बाणगंगा कहते हैं। मां ने वहां पर अपने केसों को धोया इस कारण, इस जगह का दूसरा नाम बालगंगा भी है । इसके पवित्र जल को पीने या इसमें स्नान करने से श्रद्धालुओं की सारी थकावट और तकलीफें दूर हो जाती हैं।
उसके बाद माता ने एक स्थान पर रुक कर भैरवनाथ को देखा था। उस स्थान का नाम चरण पादुका है जहां माता के चरण चिन्ह आज भी देखे जा सकते हैं।
माता ने एक गुफा में प्रवेश कर नौ माह तक तपस्या की, भैरवनाथ भी उनके पीछे वहां तक आ गया। एक साधु ने भैरवनाथ से कहा कि तू जिसे एक कन्या समझ रहा है, वह आदिशक्ति जगदम्बा है, इसलिए उस महाशक्ति का पीछा छोड़ दे। भैरवनाथ ने साधु की बात नहीं मानी। तब माता गुफा की दूसरी ओर से मार्ग बनाकर बाहर निकल गईं। यह गुफा आज भी अर्द्धकुमारी या आदिकुमारी या गर्भजून के नाम से प्रसिद्ध है।
गुफा के बाहर हनुमान जी और भैरव नाथ के बीच भीषण युद्ध हुआ। माता वैष्णवी ने महाकाली का रूप लेकर भैरवनाथ का संघार किया। भैरवनाथ का सिर कटकर भवन से 8 किमी दूर त्रिकूट पर्वत की भैरव घाटी में गिरा।उस स्थान को भैंरोनाथ के मंदिर के नाम से जाना जाता है। और उसका धड़ पास ही गिर गया। अपने वध के बाद भैरवनाथ को अपनी भूल का अहसास हुआ, और उसने मां से क्षमा मांगी माता वैष्णो देवी जानती थी कि इस हमले के पीछे भैरव की मंशा मोक्ष प्राप्त करने की है। उन्होंने भैरव नाथ को जन्म के चक्र से मुक्ति प्रदान कर दी और वरदान देते हुए कहा कि मेरे दर्शन तब तक पूरे नहीं माने जाएंगे जब तक भक्त मेरे दर्शन के बाद तुम्हारे दर्शन कर नहीं कर लेगा। उसके बाद मां ने पिंडी रूप धारण किया। कहा जाता है, मां यहां आज भी तपस्या में लीन है। इस स्थान का नाम भवन है। इस स्थान पर मां महाकाली मां महासरस्वती और मां महालक्ष्मी पिंडी रूप में गुफा में विराजमान है इन तीनों को सम्मिलित रूप से ही मां वैष्णो देवी का रूप कहा जाता है भैरव नाथ का कटा हुआ धड़ ही वह पुराना रास्ता है जिससे दर्शनार्थी माता वैष्णो देवी के दर्शन के लिए जाते थे।
पंडित श्रीधर को माता ने सपने में त्रिकूट पर्वत का रास्ता दिखाया श्रीधर गुफा पर पहुंचे उन्होंने देवी की पूजा और अर्चना की जिससे देवी प्रसन्न होकर सामने प्रकट हुई, और उन्होंने आशीर्वाद दिया तब से श्रीधर और उनके वंशज देवी वैष्णो मां की पूजा करते आ रहे हैं।